डरा डरा सा है कोई

" मेरा मानना है कि यदि कोई हमेशा आकाश की तरफ देखे तो उसके पर निकल आयेंगे" जोयस किल्मर का यह विचार कुछेक को ग़लत लग सकता है मगर आज का इंसान अपने क्रम विकास को भूल चुका है जो वक्त के साथ बदलता गया और वक्त भी उसको बदलता चला गया और उसने एक अदिम इंसान को अधुनिक इंसान बना दिया.... फिर उसने एक डर नामक चीज़ को मन में भर लिया जैस कहीं मौत उसको न दबोच ले आके मगर वह चाहे तहख़ाने के किसी कोठरी मे छिप जाये वह उस तक वहाँ भी पहुँच जायेगी और किसी हाल मे नहीं छोडेगी.......... तो फिर वही आख़िर डर किस बात का जब्कि कहा गया है जाको राखे साईयाँ मार सकें न कोई, जो जग बैरी हो बाल बाँका कर सके न कोई” मगर आज इंसान इंसान से दूरी बनाए रह रहा है कहीं अगला शिकार वही न हो जाये क्योंकि वह आज अपनों के बीच भी अपनो का भरोसा नहीँ कर पा रहा है... केवल, गीता, बाईबिल, क़ुरआन पढ़ने से कुछ नहीं होने वाला जबतक उस ख़ुदा पर ईमान को पक्का नहीं करते वही रोज़ तुम्हारे पेट भरने के ज़रिए पैदा करता है और वही तुम्हारी जान ले लेगा बेसबब..... 
कतई नहीँ आज वही इंसान डरा हुआ है जिसने इश्वर के साथ भी छल किया है उलको पता है वो गुनाह की पोटरी टाँगे छिप रहा है और कुछ उन्ही के देखा देखी मे ख़ुद को कैद करे बैठे है......घर महल बना चुका है इंसान उस महल में उसी ख़ुदा की मख़लूक एक छोटी सी मक्खी भी आ जाये वो बर्दाश्त नहीं जिसने तुम्हें इतना आलिशान घर दे दिया रहने के लिए, तो अब डर तो वाजिब है कहीं यह छिन न जाए... हम सब जानते हैं यह दुनिया एक सराय है जहाँ एक उमर गुज़ारनी है फिर वो छोटी हो यह बड़ी किसी को यह भी पता नहीँ मगर ख़ौफ़ लिए जी रहा है........वो सबसे धनवान है जो कम से कम में संतुष्ट है , क्योंकि संतुष्टि प्रकृति कि दौलत है. सुकरात के इस कथन के साथ प्रकृती से नाता जोड़ कर ही डर पर काबू पाया जा सकता है...फ्रैंक लोयड राईट का कहना है "मैं भगवान में विश्वास रखता हूँ, बस मैं उसे प्रकृति कहता हूँ." 

सर्तक रहें और सुरक्षित रहे हैं और डरे नहीँ ( उरुज शाहिद)

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